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Wednesday, April 13, 2011

जिले में नहीं थम रहा जेसीबी मशीनों से काम कराने का सिलसिला

सुरेंद्र त्रिपाठी
उमरिया (एमपी मिरर)। जिले के करकेली जनपद अन्तर्गत ग्राम पंचायत मजमानी कला के ग्राम चिर्रवाह टोला में डब्ल्यूएचटी के नाम से बन रहे स्टाप डैम की लागत का तो पता नहीं है। इसको बनाने वाली निर्माण एजेन्सी का नाम भूमि संरक्षण विभाग (सामान्य) है। हलॉकि काफी मशक्कत के बाद पता चला है कि किस विभाग का काम है। कार्य स्थल पर न तो निर्माण एजेन्सियां का नाम लिखा है और न ही लागत कुल मिलाकर वहां पर कोई जानकारी का पता ही नहीं लग पाता है।
सही ढंग से लोगों को जानकारी न होने के कारण आम जन कोई शिकायत करना चाहे तो उसको पता लगाना पड़े कि काम किसका है। यह तो छोटी सी बात है लेकिन बड़ी बात तो यह है कि जहां केन्द्र सरकार के स्पष्ट निर्देश हैं कि रोजगार गारंटी के कार्यों में मशीनों का उपयोग नहीं किया जायेगा, कार्य स्थल पर निर्माण से संबंधित बोर्ड पूरी जानकारी के साथ लगाया जायेगा, प्राथमिक उपचार की व्यवस्था रखी जायेगी, पीने के पानी की व्यवस्था की जायेगी एवं अन्य कई ऐसे निर्देश हैं। मौके पर तो किसी का पालन नहीं होता यहां तक कि मस्टर रजिस्टर तक मौके पर नहीं रहता। विगत एक सप्ताह से लगातार एक जे0सी0बी0 मशीन मजमानी कला पंचायत के ग्राम मगरघरा एवं चिर्रवाहटोला में लगातार काम कर रही है। जब जिले के जागरुक पत्रकार मौके पर गये तो वहां खुले आम मशीनों से काम होता मिला लेकिन विभाग का कोई जिम्मेदार आदमी नहीं रहा। जेसीबी मशीन का चालक और वहां विभाग द्वारा नियुक्त मुंशी बताया कि दिन-रात काम करने का निर्देश साहब दिये हैं, उनका कहना है कि जल्द काम पूरा करना है अधिकारियों का दबाब है। उमरिया जिले में यह कोई पहला मामला नहीं है जिधर भी देखें उधर जे0सी0बी0 से काम करवा कर बजट का वारा-न्यारा करने का काम धड़ल्ले से चल रहा है। अभी कुछ दिन पूर्व मानपंर जनपद के ही ग्राम खरहाडांड़ में एवं धकोदर में जे0सी0बी0 मशीन से स्टाप डैम बनवाया गया है। जबकि उसको ग्राम बल्हौंड़ में बनना था तो वहां सरकारी जमीन न मिलने के कारण धकोदर में बना कर बजट निपटा दिया गया। इसी तरह कार्य का लोकेशन कहीं का दिया जाता है और कार्य कहीं और करवाया जाता है अगर इन निर्माण एजेंसियों की तकनीकी और प्रशासकीय स्वीकृति की जांच कराई जाय तो ऐसे ढेरों मामले मिलेंगें। खास बात तो यह है कि शासन और प्रशासन के हर अंग की मिली भगत से जिले में खुले आम नियम कायदों की धज्जियां उड़ायी जा रही है।

गौरतलब है कि जिले में करोड़ों अरबों का कार्य करने वाली गैर तकनीकी एजेन्सियां धड़ल्ले से कार्य को भी गैर तकनीकी ढंग से ही निपटानें में लगीं हैं। हलॉकि उमरिया जिले में तकनीकी और गैर तकनीकी में फर्क करना रेत में सुई खोजने जैसा काम है। यहां तो सभी एक जैसा काम करते हैं, बस एक उद्देश्य रहता है कि बजट को कैसे समाप्त करें कार्य में गुणवत्ता हो या न हो। इतना ही नहीं पूर्णता प्रमाण पत्र जमा करने की भी औपचारिकता जिले में नहीं निभाई जाती है। वहीं कार्य की स्वीकृति के समय कार्य स्थल का लोकेशन भी संबंधित एजेन्सी द्वारा नहीं लगाया जाता जिससे यह पता ही न चलने पाये कि कार्य कहां कराया जा रहा है। बाद में जिला योजना समिति की बैठक में जानकारी दे दी जाती है कि कार्य पूर्ण हो गया है। वहीं कई विभाग तो ऐसे हैं जिनके पास जिले की टोप्पो सीट भी नहीे है अगर है भी तो देखना नहीं आता है।
यदि जिले में बने डब्लूएचटी, स्टाप डैम कम रपटा, तालाब जैसे निर्माण कार्यों का कैचमेन्ट एरिया देख जाय तो संबंधित विभागों को ही पता नहीं है। कुछ निर्माण कार्य तो ऐसे हैं जहां पानी की आवक अत्यधिक है वहां बने स्ट्रक्चर एक बरसात भी नहीं सह पाये और बह गये वहीं दूसरी ओर ऐसे भी स्ट्रक्चर मिलेंगे जो अनेकों बरसात होने के बाद भी पानी नहीं समेट पाये सदैव सूखे ही रहते हैं। अगर जनपद पंचायत पाली की ओर देखें तो वहां पानी की तरह ही पैसा बहाया गया है एक ही नाले पर करोड़ों के कार्य करवाये गये हैं। और उन कार्यों की तारीफ यह है कि आज भी जस का तस सूखा है। वहां के किसान पानी को तरस रहे हैं लेकिन निर्माण एजेन्सियां दावा कर रही हैं कि सैकड़ों एकड़ जमीन सिंचित की श्रेणी में आ गयी है। उसका सत्यापन जिला प्रशासन धान एवं गेहूं खरीदी के आंकड़े दिखा कर करता है अगर आंकड़ों की ओर नजर डालें तो अपने आप पता लग जाता है कि कैसे खरीदी में वृद्धि हुई है, सन् 2008-09 में धान 9469 क्विन्टल 80 किलो, 2009-10 में 3002 क्विन्टल 75 किलो और 2010-11 में 21595 क्विन्टल खरीदी गई वहीं गेहूं 2008 में 31318 क्विन्टल, 2009 में 69395 क्विन्टल और 2010 में 73531 क्विन्टल की खरीदी हुई। जबकि धान एवं गेहूं जिले के व्यापारियों से खरीदा जाता है और उसको जिले की सम्पन्नता से जोड़ कर बताया जाता है। इतना ही नहीं शासन एवं प्रशासन में परस्पर विरोधाभास देखने को मिलता है, एक ओर जिले में रिकार्ड धान एवं गेहूं की खरीदी होती है वही दूसरी ओर जिला सूखाग्रस्त भी घोषित होता है। ऐसे में स्वयं अनुमान लगाया जा सकता है कि धान एवं गेहूं की खरीदी फर्जी है या फिर जिले में पानी रोकने के नाम पर विभिन्न निर्माण एजेन्सियों द्वारा कराये गये निर्माण कार्य और पानी की तरह बहाया गया बजट फर्जी है।

अगर जिले में सन् 1998 से 2003 की पंचवर्षीय की बात करें तो उस समय तत्कालीन कलेक्टर रघुवीर श्रीवास्तव ने सत्ता के विकेन्द्रीकरण की नीति के तहत जिले में 803 तालाब बनवाया जो वर्तमान सत्ता में काबिज नेताओं को रास नहीं आया। उसी तारतम्य में जिले के ही एक जिला पंचायत सदस्य ने उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर जांच करवाने का निर्देश करवाया जिसके लिये टीम गठित की गई और जांच में क्या हुआ किसी को कुछ भी पता नहीं चल सका।
इतना ही नहीं वर्तमान वांधवगढ विधान सभा क्षेत्र के विधायक अपने चुनावी सभा के दौरान हर जगह भाषण देते रहे कि हमारी सरकार आयेगी तो दूध का दूध-पानी का पानी होकर रहेगा, दूध तो कहीं नहीं दिया हां पानी अवश्य हर जगह दिख रहा है। हां इतना बदलाव अवश्य आया कि जो पूर्व की सरकार ने तीन लाख और पांच लाख के तालाब पूरे जिले में बनवाये वो वर्तमान की सरकार में बैठे दिमागदार लोग अपनी अक्ल का उपयोग कर पैटर्न बदल कर चालीस लाख, पचास लाख का काम दूरस्थ अंचलों में करवाने लगे ताकि लोगों की नजर भी न पड़े और बजट का भी बंदरबांट कायदे से हो जाय। जबकि केन्द्र सरकार की मंशा है कि हर ग्रामीण को रोजगार मिले इसी के तहत जिले में काम के बदले अनाज योजना, बैक ग्रान्ट रीजन फंड योजना, राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना जैसी योजनायें समय-समय पर लागू होती गई और हर योजना का लाभ उमरिया जिले को मिलता गया। उसका परिणाम यह रहा कि जिले में गरीब परिवारों की संख्या में दिनों दिन इजाफा होता जा रहा है। एक ओर तो प्रदेश के मुखिया प्रदेश को देश में अग्रणी बनाने का दावा कर रहे हैं वहीं बीपीएल परिवारों की संख्या बढती जा रही है। अगर जिले और प्रदेश कें बीपीएल परिवारों के आंकड़े देखें तो साफ दिखता है कि प्रदेश उन्नति के जगह अवनति की ओर तेजी से जा रहा है। जिसके जिम्मेदार जिले में बैठे अधिकारी और नौकरशाह हैं। यही कारण है कि जिले की संरक्षण प्राप्त निर्माण एजेंसियां खुले आम सभी नियम कायदों के दरकिनार कर मशीनों से काम करवा रही हैं।

इस संबंध में जब भूमि संरक्षण विभाग के एसएडीओ हीरा सिंह से फोन पर बात की गई तो उनका कहना रहा कि जो कार्य मशीनों से हो रहे हैं वह विभागीय मद एवं आदिवासी विकास विभाग के बजट से हो रहा है। कुल मिला अगर देखें तो मजदूर को ही मजदूरी से वंचित होना पड़ रहा है।

इन सब से साफ जाहिर होता है कि जिले में भ्रष्टाचार की जड़ कितनी गहरी है। और निर्माण एजेंसी कहां तक अपना जाल फैलायीं हैं। ऐसे में प्रदेश के मुखिया और उनके प्रशासनिक अमले के कथनी और करनी का अंतर साफ दिख रहा है। इसीलिये जिले की निर्माण ऐजेंसियां फर्जी एमआईएस डाटा फीडिंग कर प्रदेश में अपनी पीठ थपथपवा लेती है।

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