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Wednesday, July 08, 2009

ग्लोबल वार्मिंग विश्व के लिए एक अभिशाप


सुनील कुमार
भोपाल। पछले तीन दशक से पर्यावरण में हो रहे लगातार बदलाव से पूरे विश्व के लिए परेशानी का शबब बन गया है। चारों तरह यह बदलाव जीवन के ऊपर कहर ढहता जा रहा है। पृथ्वी से लेकर वायुमण्डल के पांचों मंडलों में इस तरह परिवर्तन हो रहा है। मानो मनुष्य से प्रकृति दूर हो रही हो, आज चारों तरफ जलवायु और पर्यावरण में हो रहे बदलाव को लेकर पूरे विश्व के श्रीमुख पर एक ही बात आती है यह सब असंतुलित विकास की देन है जो हमारे देश तथा हमारे भविष्य के लिए अभिशाप बनता जा रहा है।

गायब होते वन, जल संकट, खाद्य असुरक्षा, सूखा, बाढ़ और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं की खबरे नितदिन सुनाई देने लगी हैं। यह प्राकृतिक असंतुलन इस तरह बढ़ता जा रहा है कि आने वाले भविष्य में इसका परिणाम बहुत भयावह होगा जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

आज हम धीरे-धीरे पूर्णतः काल की गाल में समाते जा रहे हैं और इसे हम हाथ पर हाथ धरे तमाशाबीन की तरह देखते जा रहे है। ऐसा लग रहा है मानों हम मुखबाघिर हो गये है। पूरा विश्व इस प्राकृतिक असंतुलन को अपनी खुली आंखों से नहीं देख रहा है। आज हम भूमण्डलीकरण व वैश्वीकरण की आंधी में उड़ते जा रहे हैं, सिर्फ हमें विकास ही दिखाई दे रहा है। इस विकासवादी युग में इस तरह अंधे हो गये है कि इसका दुष्यपरिणाम भी दिखाई नहीं दे रहा है। विकास के लिए चाहे हमें सारी मर्यादाएं और मानवीय लाइनों को क्या नहीं पार करना पड़े। विकसित सहित विकासशील देश भी आगे बढ़ने की होड़ में अपनी सारी मर्यादाये ताक पर रख दिये है। ये देश अपने विकास के लिए अंधाधुध प्राकृतिक खनिजों का विदोहन करने में लगे है। जीवाश्म ईधन के जलने और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के चलते जलवायु परिवर्तन की गंभीर समस्या सामने आई है। इस चुनौती से निपटने के लिए हमें तुरंत एक ऐसी व्यवस्था व संगठन की जरूरत है, जिससे कम से कम कार्बन उत्सर्जन हो।

पर्यावरण संबंधी नुकसान से निपटने के लिए तमाम प्रयास किए जा रहे है। बहुत सारी संस्थाएं इस समस्या के प्रति जागरूक भी हुई है और उन्होंने इस दिशा में अपनी तरफ से कदम उठाए हैं। इसके लिए कई संस्थाएं और संगठन भी बनाए गए है, लेकिन फिर भी कार्बन उत्सर्जन की वृध्दि अविराम गति से हो रही है। दरअसल जीवाश्म ईधन बनने में लाखों साल लगते हैं और इसका विदोहन बहुत तेजी से हो रहा है। दुनियाभर में जीवाश्म ईधन का सर्वाधिक इस्तेमाल बिजली उद्योग और ऊर्जा उत्पादन में हो रहा है। इस ईधन को जलाकर ऊर्जा पैदा की जाती है।

जाहिर सी बात है इस पूरी प्रक्रिया में कार्बन-डाईआक्साइड, कार्बन-मोनाआक्साइड और अन्य जहरीली गैसों की उत्सर्जन होगी, न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएगा बल्कि पूरे जीवन चक्र को काल की मुंह में ढ़केलता जाएगा। अभी हमारे पास वक्त है। हम जलवायु परिवर्तन के भयानक परिणामों से बच सकते है। इसके लिए जरूरत है कि हम तुरंत सकारात्मक कदम उठाए। यदि हम ऐसा करने में असफल रहते हैं, तो इसका दुष्परिणाम का फल हमें अपनी जिंगगी देकर चुकाना होगा। उल्लेखनीय है कि आज हम सबसे ज्यादा तरक्की और विकास पर ध्यान दे रहे हैं। आज पूरे विश्व के सामने एक यक्ष प्रश्न है कि तरक्की को चुना जाए या जलवायु परिवर्तन नियंत्रण को। दरअसल जलवायु परिवर्तन के खतरें को नजरअंदाज करने से आर्थिक तरक्की अपने आप ही बर्बाद हो जाएगी। आज हम जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित जरूर है, लेकिन इस पर खास अमल नहीं कर रहे हैं। विकसित देश विकासशील देशों पर आरोप लगाते आ रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिग में कार्बन उत्सर्जन का काम सबसे ज्यादा विकासशील देश कर रहे हैं, जबकि यह एक कोरी कल्पना है। विकासशील देश के अपेक्षा विकसित देश सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन का काम करते हैं।

एक आकड़े के मुताबिक अकेले अमेरिका पूरा कार्बन उत्सर्जन का दो तिहाई हिस्सा उत्सर्जित करता है। और इसका खामियाजा उन गरीब देशों को भुगतना पड़ रहा है जो अपने विकास के लिए दूसरे पर आश्रित रहते है। इतना ही नहीं यदि हम आकड़े पर ध्यान दे तो एक अमेरिकी जितना अकेले कार्बन उत्सर्जन करता हैउतना ही में पांच भारतीय, ग्यारह पाकिस्तानी इक्कीस नेपाली कार्बन उत्सर्जन करते है। लेकिन हमेशा अमेरिका विकासशील देशों को ही कोसता रहता है कि सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन गरीब व विकासशील देश करते हैं। सबसे बड़ी चौकाने वाली बात तो यह है कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए सबसे पहला कदम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकसित देश ही उठाए है और इसके लिए निम्न कार्बन अर्थव्यवस्था के तहत क्योटो फोटोकाल पर भी हस्ताक्षर किए है। यह प्रोटोकाल 16 फरवरी 2005 में अस्तित्व मे आया। इसके तहत सभी विकासशील व विकसित देश कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने का वादा किए लेकिन फिर भी इस पर रोक नही लगाया गया है। आज जरूरत है कि एक बार फिर हम एक साथ बैठकर कार्बन रहित अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए परमाणु शक्ति या 'कार्बन कैप्चर एण्ड स्टोरेज रणनीति पर काम करें।

2 comments:

  1. सच कहा है......... अमेरिका ही सबसे बड़ा चौधरी बना फिरता है.............जो २ तिहाई कार्बन गैस बनाता है .......... जल्दी ही इसका कोई समाधान ढूंढ़ना होगा.........

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