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Friday, May 13, 2011

बदहाली में कट रहा जीवन

आकाश राय
कचरे से संवरता बचपन
हरपालपुर/छतरपुर (एमपी मिरर)। मनुष्य जानवरों से बदतर जीवन जीने को अभिशप्त है, बसोर समाज दुनिया की जूठन खाने, कचरे को ही जिंदगी मानना ही उनकी बदकिस्मती है। बचपन की अठखेलियों गुजरी जवानी पीठ पर लादा और बुढ़ापे के साथ जिदंगी भी फना हो गयी। कचरे के ढेर में न समय और विकाससशील समाज ने उन्हें अपनाया और न ही पाटी पोथन्ना से उनका बास्ता पड़ा। पीढ़ी दर पीढ़ी कचरे में पली और यही खत्म हो गयी, कचरा ही आजीविका बनी और कचरा ही आशियाना बना। देश भले ही इक्कीसवीं सदी का उल्लास मना रहा हो, लेकिन यहां की गरीबी बेकारी असमानता और सामाजिक उपेक्षा का जीवन्त नमूना है। घुमंतु लोगडिया समाज व मलिन बस्ती के ये नौनिहाल जिनके हाथों में कलम होनी चाहिए।

गंदी पालीथिन और लोहा प्लास्टिक सहित न जाने कितने प्रकार की धातुए कचरे को बीनते नजर आते हैं। बालश्रम पर कानून लागू होते ही कई गरीब परिवारों में दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हो पा रही है, जिनके हाथों में अभी स्कूल की किताबों का बोझ उठाने की शिक्त नहीं उनके ऊपर भरण पोषण का बोझ डाल दिया जाता है।
समाज भी इन्हें तिरस्कार की नजरों से देखता है, अक्सर इन्हें बड़े लोगों की जूठन व गालिया खाने को मिलती हैं। कुछ समाज के अराजक तत्व इन लाचार बेकसूर बच्चों को अकारण पीटते देखे जाते हैं। कचरा बीनने वाले स्वच्छ विचरण करने वाले उनके साथी हैं, क्योंकि उक्त समाज से तिरस्कृत कचरा बीनने वाले और सूअर, कुत्ते दोनों के अड्डे, गंदी नालियां, गंदी बस्तियां और कूड़े के ढेर पर घूमना है। गरीबी हटाओ योजनाएं नौकरशाहों के ईद-गिर्द ही परिक्रमा करते हुए खत्म हो जाती हैं।
बचपन लुटाते बाल श्रमिकों को अभाव व दुत्कार शोषण के अलावा कुछ नसीब नहीं होता, गरीबी के लिए ढिढोंरा भले ही पीटा जाता है, लेकिन जमीनी हकीकत गरीब के पेट की आग बुझाने आज भी दो जून की रोटी की जुगाड़ में एक समय का चूल्हा बड़ी मुश्किल में जल पाता है। समाज सेवी संस्थाओं और राजनैतिक दलों की भूमिका दोगली रही है।

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